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क्षण बोले कण मुसकाये

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1221
आईएसबीएन :81-263-0862-1

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प्रस्तुत है पच्चीस अन्तर्दशी और मर्मस्पर्शी रिपोर्ताज...

Kshan Bole Kan Muskaye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें पच्चीस रिपोर्ताज़ हैं जिनमें हम विगत वर्षों में घटित कुछेक घटनाओं के आधार पर राष्ट्र एवं लोक-जीवन की झाँकी पूरे आनन्द एवं तल्लीनता के साथ देख सकते हैं-एक लोक-प्रदर्शनी की तरह। कवित्य, कैमरा और इतिहास की त्रिवेणी है यह पुस्तक।

रिपोतार्ज़ घटना का हो, दृश्य का हो या उत्सव-मेले का हो, उसे ज्ञान और आनन्द का संगम होना चाहिए। मैं जो कुछ देखता हूँ उसे बहुत विस्तार में देखता हूँ, बहुत गहराई में देखता हूँ, तब चिन्तन में उस देखे हुए दृश्य का अर्थ फैलाता हूँ। फलितार्थ फैलाता हूँ और लिखते-लिखते उसे इतिहास की कड़ी और जीवन की लड़ी से इस तरह जोड़ देता हूँ कि एक सम्पूर्ण चित्र बन जाता है।

जिसका साहित्य जातियों, धर्मों, प्रदेशों और देशों से ऊपर उठ, विश्वात्मक हो गया है, जिसने कभी मेरे साथ बेवफाई नहीं की, और जिसके साथ मैंने कभी गद्दारी नहीं बरती, जिसने सदा पूरे हृदय से मेरी परवाह की और जिसकी परवाह ने मेरी कलम की कमान को समाज के महाधीशों के प्रति बेपरवाह कर दिया, जो सर्वदा मेरा इष्ट रहा और जिसका मैं सर्वदा अभीष्ट रहा, जिसके साथ मैं जीता रहा हूँ और जिसके साथ मैं मृत्यु के बाद भी जीता रहूंगा मेरी यह कृति भेंट।

क.ला.प्रभाकर

ज्ञान और आनन्द के इस संगम में

भूमिका, पहले संस्करण से

1925 में जब मैं अपनी तुकबन्दियों के तंग घेरे से निकलकर गद्य के क्षेत्र में आया, तो मैं श्री चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ की संस्कृत-सरस शैली से पूरी तरह प्रभावित था। उन्हीं दिनों वसन्त में खेतों पर खूब घूमने के बाद मैंने एक लेख लिखा था। पूरी जिम्मेदारी के साथ आज मैं कह सकता हूँ कि गद्य-काव्य, स्केच और रिपोतार्ज़ के बीज थे उसमें।

कुछ लोग कहते हैं कि पत्रकार-कला में रिपोतार्ज़ का आविष्कार रूस में हुआ और वहीं से यह भारत में आया। निश्चय ही यह उस देश में अपने स्वतन्त्र रूप में पनपा होगा; हिन्द को उसका श्रेय लेने की आवश्यकता नहीं, पर हिन्दी में यह स्वतन्त्र रूप में पनपा है और उस पर किसी का किसी तरह का भी ऋण नहीं। हाँ, बाद में इस विधा के लिए रिपोतार्ज़ नाम रूसी के माध्यम से हिन्दी ने लिया, यह एक प्रत्यक्ष सचाई है।

स्पष्ट है मेरे मन में न रिपोतार्ज़ शब्द था, न उसके फलितार्थ। फिर उसे लिखने की भावना मुझमें कैसे उगी और उसका स्वरूप मेरे मन में कैसे बना ? इस प्रश्न का उत्तर एक लम्बी कहानी है। 1925 में कानपुर में काँग्रेस का अधिवेशन श्रीमती सरोजनी नायडू के सभापतित्व में हुआ। उसमें जाने की तीव्र इच्छा थी, पर धनाभाव के कारण मैं जा न सका, कहूँ तड़पकर रह गया। फल यह हुआ कि दैनिक और साप्ताहिक पत्रों में कानपुर-अधिवेशन के सम्बन्ध में जो कुछ छपा, वह मैंने अक्षर-अक्षर पढ़ा, पर सब कुछ पढ़ने के बाद भी मैं प्यासा रह गया। यह प्यास आनन्द की थी। अधिवेशन में जो कुछ हुआ, बस सारी ‘रिपोर्टिंग’ में उसका ज्ञान और विवरण तो था, पर आनन्द न था।

मुझे इससे बहुत बेचैनी हुई और मैंने बार-बार सोचा कि क्या यह रिपोर्टिंग इस तरह नहीं हो सकती कि जो लोग अधिवेशन में नहीं गये उन्हें भी वहाँ जाने का कुछ-न-कुछ आनन्द आये ? वे सौ प्रतिशत पाठक तो रहें ही; पर दस-बीस प्रतिशत दर्शक भी हो सकें।
1926 में गुरुकुल काँगड़ी की रजत-जयन्ती मनायी गयी और उसमें महात्मा गाँधी, मालवीयजी और टी.एल. वास्वानी के आने की घोषणा हुई। मैं एक कृपालु बन्धु से बारह रुपये उधार लेकर उस उत्सव में गया और बहुत ही तल्लीनता से मैंने उस उत्सव को देखा। मेरी आँखों के लिए इतना बड़ा वह पहला ही उत्सव था। उत्साह अथाह, तो व्यवस्था अनुपम-पुलिस का कहीं नाम-निशान नहीं; हर क्षण नया दृश्य, नया अनुभव। मैं आनन्द-विभोर हो उठा।

घर लौटकर मैंने इस महान् उत्सव की रिपोर्टिंग भी कई पत्रों में पढ़ी और फिर पहले की तरह निराश हुआ—सभी में जड़ विवरण, जिसमें रस की एक बूँद नहीं। यह उत्सव मैं स्वयं देख चुका था, इसलिए मन में आया कि अमुक-अमुक दृश्य इस विवरण में जोड़ दिये जाते तो पाठक को कितना आनन्द आता ! इस प्रकार कल्पना में और फिर क़ाग़ज पर मैंने इस महोत्वस का रिपोतार्ज़ लिखा। वास्तविक रूप में यही मेरा पहला रिपोतार्ज़ था। सन्-महीना-तारीख के आँकड़ों में सोचने वाले इतिहास-लेखकों का काम है कि वे देखें-यही हिंदी का पहला रिपोतार्ज़ तो नहीं था !

इसमें अनेक ऐसे दृश्य थे, ऐसे स्पर्श थे कि पाठक घर बैठे भी महोत्सव में घूमने का आनन्द उठा सके। गाँधाजी, मालवीयजी, वास्वानी जी, डाक्टर मुंजे आचार्य रामदेव और साधारण दर्शकों की ऐसी छोटी-छोटी झाँकियाँ और राह चलते देखी नन्ही-मुन्नी घटनाओं के ऐसे जुड़ाव थे कि लिखकर पढ़ा, तो दुबारा उत्सव का आनन्द आ गया—साथियों में भी जिसे सुनाया, वही खिल उठा। रिपोतार्ज़ के स्वरूप और शिल्प को भरपूर जानने के बाद आज युगों-युगों के बाद पूरी ईमानदारी के साथ मेरी सम्मति है कि वह हिन्दी का सर्वांगपूर्ण रिपोतार्ज़ था।

उन्हीं दिनों और भी कई रिपोतार्ज़ कई ढंगों के लिखे। ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ के जनवरी 1927 के अंक में प्रकाशित मेरा एक रिपोतार्ज़ ‘वेदों की खोज’ भाई अमरबहादुर सिंह ‘अमरेश’ की सावधानी से सुरक्षित रह गया है। यह किसी घटना पर नहीं, इस विशिष्ट भावना पर आश्रित है कि भारत में वेदों का नाम-तो सब लेते हैं, पर उनके अध्ययन की कहीं भी उचित व्यवस्था नहीं है। बड़े ही मर्मस्पर्शी ढंग से संस्मरणात्मक रूप में यह बात कही गयी है। एक युवक वेदों का अध्ययन करने की तीव्र इच्छा से चलता है और देश की छोटी पाठशाला से हिन्दू विश्वविद्यालय तक पहुँचता है। वेद का नाम उसे जगह-जगह मिलता है, पर वेदों के अध्ययन की सुविधा कहीं नहीं। वह थककर एक बाग़ में जा बैठता है और देखता है कि एक अँगरेज़ वहाँ बैठा कुछ लिख रहा है।

पूछने पर पता चलता है कि वह वेदों का विद्वान् है और आजकल महीधर की भाष्यप्रणाली के खण्डन में एक पुस्तक लिख रहा है। यहीं रिपोतार्ज़ का अन्त इन शब्दों में होता है : ‘‘मैंने सोचा, हाय, भारतीयों को तो इतना समय नहीं है कि वे अपने सर्वस्व वेदों पर ध्यान दें और यह विदेशी वेदों पर विवेचना कर रहा है और श्रुति-सर्वस्व महीधर के भाष्य का खण्डन भारत में ही बैठा हुआ कर रहा है। शोक ! इस समय मुझे समस्त पृथ्वी और आकाश शून्य प्रतीत हुआ और मैं मूर्च्छित होकर हरी घास पर लेट गया।’’

इस रिपोतार्ज़ को लिखकर ऐसा मालूम होता है कि मेरे विकसित हो रहे मन में यह प्रश्न उठा कि यह क्या ? साहित्यिक भाषा में यों कि अपनी इस कृति के संबंध में मेरी जिज्ञासा विधात्मक थी कि यह लेख नहीं है, कहानी भी नहीं; गद्यकाव्य भी नहीं, तो फिर है क्या ? रिपोतार्ज़ शब्द तब तक उपजा न था, तो मेरी उस समय की बुद्धि ने इसे ‘निबन्धात्मक गद्यकाव्य’ कहा और यह कथन मुझे इतना ‘मौलिक’ लगा कि मैंने इसे ‘वेदों की खोज’ इस शीर्षक के नीचे उपशीर्षक की तरह लिखना आवश्यक समझा।

1928 में अपनी जन्मभूमि के चैती के मेले पर मैंने एक रिपोतार्ज़ लिखा और वह ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ में छपा भी, पर इतना कट-छँटकर कि खण्डित हो गया—एक अच्छा समाचार ही रह गया। तब उठी गाँधी की आँधी; जलसे-जुलूस और आकाश हिलाते नारे—1930 का आन्दोलन कि लिखना-पढ़ना सब तूफान, रात-दिन एक ही धुन-चलो जेल !


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